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छंद 95 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

रूप घनाक्षरी
(विप्रलब्धा नायिका-वर्णन)

लीबे कौं चली ती बहु भाँतिन कौ चैंन बन, ऊँची कै भुजान भरि अंचल लियाई लाज।
छीबे कौं चली ती वह पानिप-भरौई तन, छ्वाइ-छ्वाइ आई हियौ पावक-बियोग-साज॥
भभरि रही-न्सी अभिलाषा मन ही की मन, ‘द्विजदेव’ की सौं कछु भूलिहूँ भयौ न काज।
पीबे कौं चली ती ब्रजचंद कौ अमंद हास, पाइ चली प्यारी बिष-बिरह-बिथा कौं आज॥

भावार्थ: एक सखी दूसरी सखी से अपनी स्वामिनी की ‘विप्रलब्धा’ अवस्था का वर्णन करती है कि वह उस समय पर अनेक प्रकार के सुख लेने गई थी, पर उसके बदले भुजा ऊँची कर अंचल भरके लज्जा लाई अर्थात् सुख-समूह तो अलग रहा प्यारे के संकेत-स्थल में न मिलने से केवल लज्जा प्राप्त हुई। सौंदर्यमयी तन के आलिंगन करने को गई थी, किंतु वियोग-अग्नि से हृदय को संतप्त कर आई। मिलने की अभिलाषा चित्त में उठ-उठकर रह गई, आह! सुर-भूसुर की सौगंध भूले से भी कार्य की समाप्ति न भई! अरे! वह तो व्रजचंद का सुधामयी मंदहास पान करने गई किंतु प्यारी विरह-विषपान करके आई।