मनहरन घनाक्षरी
(ऋतुराज के दर्शनार्थ उत्सुकतापूर्वक गमन)
लटपटी पाग सिर साजत उनींदे अंग, ‘द्विजदेव’ ज्यौं-त्यौं के सँभारत सबै बदन।
खुलि-खुलि जाते पट बायु के झकोर भुजा, डुलि-डुलि जातीं अति आतुरी सौं छन-छन॥
ह्वै कैं असवार मनोरथ ही के रथ पर, ‘द्विजदेव’ होत अति आँनद-मगन मन।
सूने भए तन, कछु सूनेई सु मन, लखि सूनी सी दिसान, लख्यौ सूनेई दृगन बन॥
भावार्थ: चटपट सलोनी शय्या से उठ, लटपट पाग सिर पर बाँधता हुआ, उनींदे अंगों, आतुरता से ऐसा चला कि बाहु-युगल हिलते तथा वस्त्र वायु के झकोर से बारंबार उड़ते जाते थे, मानो मनोरथ के रथ पर अत्यंत उत्सुकता के कारण आनंद-मग्न होकर चढ़ लिया और इस वेग से चला कि ज्ञान-शून्य हृदय, दर्शनातिरिक्त अन्येच्छा-शून्य मन, शून्य दिशा और शून्य वन स्वभावतः वेग के कारण मालूम पड़ते थे।