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छठमसर्ग / अम्ब-चरित / सीताराम झा

उत्कण्ठित सुनि प्रन मिथिलेशक
भेला नृपगन देश विदेशक।
नहिं छल धनुषक परिचय जनिका
अति उमंग मन उमरल तनिका॥1॥
‘अहमहमिका’ भेल खल - दल में
छल गौरव जनिका भुजबल में।
जते वीरवर पछिमा पूबा
बाह्नि बाह्नि चलला मनसूबा॥2॥
“जैतहि हम शिवधनुष उठायब
नारि - रत्न सीता कैं पायब”।
चढ़ि चढ़ि उड़नबाज सब घोड़ा
चलथि हाथ लय चाबुक कोड़ा॥3॥
बाट निरन्तर दौड़ल आबथि
हपसि हपसि सब धनुष उठाबथि।
अपन अपन पौरुष कय थकला
तिलभरि नहिं हँटाय क्यौ सकला॥4॥
नृपगन हेतु धनुष छल तहिना
चूटिक हेतु हिमाचल जहिना।
जाथि धनुषलग जोर जनौने
हँटथि अपन सन मूँह बनौने॥5॥
क्यौ असाध्य बुझि लग नहिं ऐला
क्यौ किछु बात बनाय पड़ैला।
जे जत निर्बल से तत तर्जथि
निर्जल मेघ जकाँ उठि गर्जथि॥6॥
क्यौ बाजथि पुनि अक्षम भयने
छथि विदेह नृप टोना कयने।
बाजल लाजहीन क्यौ दानब
“हम नहिं नृप जनक क प्रन मानब॥7॥
के अछि हमर आन जन जोरी
बाहुक बल सौं वरव किशोरी”।
फटकि अधम ई रूप बड़प्पन
कयलक प्रकट नीचता अप्पन॥8॥
छला नृपति जे वीर विवेकी
गेला धनुष निकट उठि से की?।
माँथ झुकाय जनौलनि निष्ठा
बैसि बचौलनि अपन प्रतिष्ठा॥9॥
व्यर्थ बात नहिं धीर बनाबथि
अपन क्रियहि सौं सुयश जनाबथि।
रथ पर चढ़ि लंकापति आयल
चाप-महत्त्व जानि घबरायल॥10॥
“गुरु-धनु थिक” ई कहि दुष्कर्मा
कलबल अपन बचौलक भर्मा।
जनकक निकट लहत नहिं ठेसी
ई बुझि नहिं बाजल किछु बेसी॥1॥
“उठत की नहिं” मनमें छल शंका
फटकि बड़प्पन घसकल लंका।
धनुष उठाय सकल नहिं रावन
परक हेतु भय गेल भयावन॥12॥
बुझि बल घटल असुरवर बानक
कहल जाय कहिनी की आनक।
सब निराश-सागर में पैसल
“कीकरतबविमूढ़” बनि बैसल॥13॥
कौसिक मुनिक संग तहि अवसर
आयल छला तपोवन बकसर
अमल अनूप रूप छवि - आगर
बुद्धि - विवेक - शीलगुन - सागर॥4॥
खलबलदलन साधुजन - पालक
नवल किशोर अवध- नृप - बालक।
बलनिधान मुनिजन - मख - त्राता
लछुमन राम-नाम दुइ भ्राता॥15॥
ततय ताटका नाम यक्षिनी
रहइति छलि मदमांस - भक्षिनी।
स्वेच्छारूप तपोवन - चारिनि
मुनिजन यज्ञक वाधा-कारिनि॥16॥
युगल-रूप लखितहि मददर्पलि
कसि भरकछ सहसा उठि छर्पलि।
नहिं मुनिमना मानि मदबौड़लि
लय खापड़ि रघुवर पर दौड़लि॥17॥
राम नारि बुझि शर नहिं मारल
पकड़ि झोंट झट झीकि झमारल।
खसलि मुरुछि रजनीचरि तहिना
काटल तरु धरतीपर जहिना॥18॥
कय बन-सदृश घोररव घहरलि
हेहरि हरि हरि कहि कहि कहरलि।
गेलि स्वर्ग पलभरि नहि ठहरलि
निशिचर-नारि डरहि सब हहरलि॥19॥
सुरगन हरषि सुमन बरिसौलनि
जय धुनि संग रामगुन गौलनि।
विश्वामित्र मुदितमन भेला
राम सहित विद्धाश्रम गेला॥20॥
सुनि सुबाहु मारिच खिसिआयल
सैन्यसहित तत आबि तुलायल।
अति विकराल रूप सब कयने
बहुविध अस्त्र-शस्त्र कर-धयने॥21॥
धनुष वान क्यौ शिला-खण्ड लय
क्यौ वरछी तरुआरि दण्ड लय।
क्यौ भाला फरुसा गड़ाँस लय
तरु उखाड़ि क्यौ चलल बाँस लय॥22॥
निरखि मनहि मुनिजन घबरैला
नहिं रघुवंश-वीर अगुतैला।
लय आज्ञा मुनि ओ रघुवर सौं
लछुमन ललकि कहल निशिचर सौं॥23॥
हित अनहित विचारि तों मनमें
अरे अधम! उद्यत हो रन में।
जौं रघुवंश-वीर सौं लड़बैं
दीपक ऊपर शलभवत पड़बैं॥24॥
जे रघुवंशिक शर-लग आयल
भेल आगि परि काठ सुखायल।
तैं चाहह यदि प्रानक रक्षा
तौं घर जाह खोलि निज कक्षा॥25॥
किन्तु हुनक कहिनी नहिं सुनलक
भावी-विवश कान कैं मुनलक।
कहलक गरजि कथा लछुमन सौं
जाह बटुक घर घुरि अहि बन सौं॥26॥
नारि मारि पौरुष जनबै छह
उनटे एतय बात बनबै छह।
बदला लेब अवश हम छन में
विधिप्रेरित ऐलह अहि बन में॥27॥
ई कहि अस्त्र शस्त्र सब फेकल
शरसौं राम अकाशहि टेकल।
कय बुकनी उपरहि उड़िआबय
रामक शर पुनि कर घुरि आबय॥28॥
विविध शस्त्र निशिचर गन फेकय
रामक शर बाटहि में छेकय।
देखि चकित छल निशिचर सेना
तदपि करैत रहल बकठेना॥29॥
राम प्रचारि सम्हारि शरासन
फेकल शर सहस्ररिपु - नाशन।
भेल सकलनिशिचर शिर खण्डित
रहल शेष मारीच घमण्डित॥30॥
तकरहु रघुवर शर पर टेकल
सय योजन बाहर कय फेकल।
ई विधि निरखि पराक्रम रामक
सब जन अति प्रसन्न तहि ठामक॥31॥
दिव्यदुन्दुभी देव बजौलनि
निजनिज यज्ञ भाग सब पौलनि।
रघुकुल कमल युगल भुजबल सौं
भेल यज्ञ सम्पन्न कुशल सौं॥32॥
ततय सुनल प्रन श्रीमिथिलेशक
सुयश बहुत पुनि मिथिला देशक।
सहसा भेल मनक आकर्षन
“करी जाय मिथिलेशक दर्शन॥33॥
मिथिला पुण्य-भूमि कैं देखी
संगहि धनुषक यज्ञ परेखी।”
ई विचारि मुनि सौं मृदुवानी
कहलनि सकुचि शरासनपानी॥34॥
“गुरुवर! बहुविध श्रीमिथिलेशक
सुनल प्रशंसा मिथिला देश क।
जनक सुयश श्रुति शास्त्र गबै अछि
अहिठाँ सौं से निकट पबै अछि॥35॥
चली तही पथ मन अभिलाषा
देखी सभक भेष ओ भाषा।
स्वपुर-गमन दरसन पर-राजक
एक उदेश सिद्धि दू काजक”॥36॥
सुनि रघुकुल-दीप क प्रिय वानी
बजला कौसिक मुनि विज्ञानी।
“राम! अहाँ ई उचित विचारल
हमरहु विसरल कैं मन पारल॥37॥
जनक- समान आन विज्ञानी
नहिं त्रिभुवन में अछि क्यौ प्रानी।
हुनक निकट सब ज्ञानक भिच्छुक
सतत हमहुँ छी दरसन इच्छुक॥38॥
देखक योग्य भूमि तिरभुक्ति क।
काशी-सदृस धाम थिक मुक्ति क।
तीनूक ई विचार थिर भेलनि
वन-गत जनसौं अनुमति लेलनि॥39॥
मिथिला-हेतु गमन सब कैलनि
उत्तर दिसक राजपथ धैलनि।
वनसौं चलइत देखि राम कैं
सकल जन्तु तजि तपोधाम कैं॥40॥
हहरि संग लागल श्रीरामक
पशु पच्छी जे छल तहि ठामक।
सबकैं कहि प्रिय वचन बुझौलनि
मुनि पुनि पुनि परिबोधि फिरौलनि॥41॥
सब जन पथवर्ती पुरगामक
अनुपम छवि श्री लछुमन रामक।
निर्निमेष लोचन सौं देखथि
अपन अपन जीवन धनि लेखथि॥42॥
पथ परखैत गुरू ओ चेला
गप करैत सुरसरितट गेला।
जतय सलिलबनि पुण्य बहै छल
यज्ञ तप क अभिमान ढहै छल॥43॥
तरल- तरंग - संग भयकारक
संग नकार-सोंसि-घरियारक।
चलइत छल करइत जल रक्षण
दर्शक जनक दुरितचय- भक्षण॥44॥
निरखल निरमल नीरक लहरी
विबिध लता-तरु-शोभित अहरी।
लछुमन रामक नयन जुरायल
पथक परिश्रम पथहि परायल॥45॥
देखि सुकृत-सलिला सुरधुनि कैं
पूछल रघुवर कौसिक मुनि कैं।
“ई छवि सुरसरि पाबि रहल छथि
कहू कतै सौं आबि रहल छथि?”॥46॥
कहलनि मुनि रामक सुनि वानी
दिव्य-धुनिक संक्षिप्त कहानी।
“पूर्वज अहिंक प्राप्त वश काल क
साठि हजार सगरनृप- बालक॥47॥
कपिल-शाप-वश दुर्गति पौलनि
मुक्ति क पथ मुनि ततहि सुनौलनि।
“केवल एक दिव्य-धुनिजल सौं
हिनक वंशभव क्यौ तपबलसौं॥48॥
लाबि भस्म में स्पर्श करौता
तैखन ई सब सद्गति पौता”।
नृपति दिलीप यत्न कै थकला
जल गंगा क लाबि नहिं सकला॥49॥
सन्तति तनिक भगीरथ भूपति
गंगा लाबक कैलनि सम्मति।
जे सुर-नर-मुनि-असुर-अवश्या
तनिका आनब कठिन समस्या॥50॥
जानि भगीरथ कयल तपस्या
नित पूजन व्रत सहित नमस्या।
तप सौं तुष्ट देवसरि भेली
विष्णु क पदतल सौं बहरेली॥51॥
जटा- जूट शंकर क समेली
हिमगिरि-पथ भारत भू ऐली।
परसि सगरसुत सब कैं तारल
भारत भूमि क पाप पखारल॥52॥
पापी विविध असंख उधारल
यमराज क कचहरी उसारल।
तहिया सौं सब जन्तु मस्त अछि
परिजनयुत यमदूत त्रस्त अछि॥53॥
पापक पद्धति भेल ध्वस्त अछि
पुण्यहु कृति सौं सब निरस्त अछि।
बड़ बड़ नरकक नाम अस्त अछि
इन्द्र कुबेरक घर सिकस्त अछि॥54॥
चारु पदारथ सभक हस्त अछि
सागहु सौं अपवर्ग शस्त अछि।
सुमिरन दरसन परसन मज्जन
करितहि तरथि पितर-युत सज्जन॥55॥
केवल गंगा, नामक जापी
होइछ विष्णु- समान प्रतापी।
कोटि कोटि जन्मक जे पापी
गोघाती द्विजवधी सुरापी॥56॥
गंगा नाम सुनैत मरै अछि
तौं तकरो सब पाप टरै अछि।
धोखहु जे जलपान करै अछि
कुल-समेत से अधम तरै अछि॥57॥
जे जन भक्ति-समेत नहाइछ
तकर पाप सन्ताप दहाइछ।
गंगा गुन के गाबि सकै अछि
वानिक वानी जतय थकै अछि”॥58॥
सुनि सुरसरि महिमा रघुनन्दन
कयलनि नतमस्तक भै वन्दन।
बजला कौशिक मुनि पुनि बानी
“गंगा निकट आबि जे प्रानी॥59॥
सविधि नहाय राति बितबै अछि
से नहिं पुनि भव मध्य अबै अछि।
तैं निज जीवन सफल बनाबी
अहिठाँ आजुक राति बिताबी”॥60॥
ई विचारि सब ततय नहैला
रवि अस्ताचल आश्रित भेला।
भेला स्थिर तट में कय बासा
भेल अरुण छवि पच्छिम आसा॥61॥
गोपद- धूलि गगन में पसरल
पच्छीगन खोंता- दिसि ससरल।
सहसा घटली कमल- छवि तहिना
प्रोषितपतिका मुख-छवि जहिना॥62॥
भमर भेल जनु जन विनु अर्थक
कृपनक धनवत नयन निरर्थक।
भेल खलाऽखल मुद-भय- कारक
मूर्ख-हृदय वत रूप अन्हारक॥63॥
तथा सुशोभित गगन सतारक
यथा अतिथि सौं भवन उदारक।
द्विजगन वसनिहार तहि ठामक
अनुपम मुनियुत लछुमन रामक॥64॥
अनायास शुभ दरसन पौलनि
कुशल पूछि निज कुशल सुनौलनि।
कय सत्कार देल आसस्थल
भोजनीय नव कन्द् मूल फल॥65॥
दही दूध पूरी तरकारी
दय पुनि गंगा जल भरि झारी।
अपन अपन सब सुकृत मनौलनि
मुनि गंगागुन गाबि सुनौलनि॥6॥

(सवैया)

जावत जहनु सुता जगमें छथि तावत राग-विराग बराबरि
पुण्य करै अथवा जन पाप दुनू विधि पाबय भाग बराबरि।
जे पद देवहुकैं छल दुर्लभ जे छल लाख सुयाग बाराबरि
सम्प्रति दिव्यधुनीतट में अछि से पदवी सब साग बराबरि॥67॥
गंगा तरल-तरंग-धुनि-संग मुनिक उपदेश
सुनि कैलनि विश्राम निसि रघुकुल कमल दिनेश॥68॥

(दोहा) -

धनु-गुरुता बकसरकथा श्रीगंगागुन गान।
अम्बचरित में भेल ई, छठम सर्गअवसान॥