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छठवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

मिल गया अधिकार।
युग-युगों की सुप्त वीणा के जगे मृदु तार॥
स्वप्न था ‘मिलकर बजेगी एक स्वर में बीन’
जागरण बोला ‘कि सपना है मधुर रंगीन;
खोलने दो द्वार।’
मिल गया अधिकार॥

‘बीतने दो रात, आयेगा नवीन प्रभात
एक युग बदला, चलेगी दूसरे की बात;
नवल जीवन-धार।’
मिल गया अधिकार॥

रात बीती, प्रात आया, पहन कर नव वेष
स्वर्ण सज्जित; रक्त-रंजित किन्तु था यह देश;
जी थी या हार?
मिल गया अधिकार॥

‘जीत थी या हार’ है स्वीकार यह संघर्ष
वर्तमान-भविष्य का हो भूत पर उत्कर्ष;
हो नया संसार।
मिल गया अधिकार॥

हो न हम अधिकार के उन्माद में यदि मत्त
हो सुदृढ़ कर्तव्य-पथ पावन-पवित्र-प्रशस्त;
एक होगा प्यार।
मिल गया अधिकार॥

और तब मिल कर बजेगी एक स्वर में बीन
सत्य होगा स्वप्न जो देखा मधुर रंगीन;
मिल बहेगी धार।
मिल गया अधिकार॥