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छत / रेणु हुसैन

काश मेरी एक छत होती!
मैं भी पन्द्रह अगस्त के दिन
छत्त पर चढ़
पतंग उड़ाती, पेंच लड़ाती
मानसून की बरसातों में भीग-भीग
बरसाती गाने गाती, आनंद उठाती ।

दीपावली की शाम छत पर दिये जलाती
धूम धड़ाका करती, लड़ियाँ लगाती ।
होली के दिन छत् पर से आते–जातों पर
रंग भरा पानी उडेलती ।

रोज़ सवेरे छत् पर चढ़ सूरज को पानी देती
अपना भाग जगाती ।
छत् पर कपड़े सुखाती,
रात को खाना पचाने घूम-घूम इठलाती ।

कार्पोरेशन को कुछ खिला-पिला छत् पर
एक मंजिल और बनवाती ।
फिर मुझे क्या करना था
किरायेदार रख, किराया खाती ।

फिर बच्चे क्यों लड़ते
छत् पर कमरा डाल
उनकी फैमिली यहीं रह जाती
मगर पडोसन तो
छतवाली है,
परिवार है,
बहू नित्य नियम से,
खाना पहुँचा जाती है।

और वोह
तुलसी लगाती है,
जाप करती दिखती है,
चिडियों को दाना डाल–डाल
जीवन काटे जाती है

उसका जीवन छत्त पर
कटता जाता है ।