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छप्पर फाड़ कर / असंगघोष

दो जोड़ी
बेबस आँखें
कभी आसमान को निहारतीं
कभी झोंपड़ी के छप्पर को
जो था कल तक
छन्नी सा
कभी चाँद को दिखाता
चाँदनी बिखेरता,
सूरज के प्रकाश को बाँटता

आज
कड़कड़ाती बिजली की चमक में
माँ का बेटी को
छाती से लगा कर
फटे आँचल से ढँपना
फिर काले आसमान की ओर
देख कर सोचती है
‘‘क्यों मेहरबान बादल
उमड़ता हुआ
आज ही
सारा पानी उड़ेल रहा है’’

इतने में
झोंपड़ी के पीछे वाली
दीवाल का भरभरा कर गिरना
छप्पर से टपकते पानी
टूटी दीवार से आती बौछारों से
मिल एकाकार हो जमीन पर फैल जाना
पास ही कहीं
बादलों का फट पड़ना
नदी, नालों व मैदानों का सीमा तोड़
जलप्लावित होना
तेज हवा के संग ठण्डक का लहरा कर
बारिश से ताल मिलाना,
ठण्डक ठिठुराती
असमय जाड़ों को ले आना

भूखी बच्ची की भोली आँखें
चेहरे पर घिर आई चिन्ता
गीली लकड़ी
बुझा चूल्हा
कैसे चढ़ती हांडी
माँ के चेहरे पर बार-बार आ टिक जातीं।

जहाँ आते-जाते
कई प्रश्न दिखाई देते
क्यों मच जाता है ऐसा विप्लब?
क्या ईश्वर कहर भी
छप्पर फाड़ कर देता है?