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छवि उसकी / कुमार रवींद्र

छवि उसकी
अब भी आँखों में बसी हुई है
 
सुबह-सुबह
पगडंडी पर वह हमें मिली थी
पहली-पहली किरण धूप की
तभी खिली थी
 
वही किरण
साँसों में अपनी धँसी हुई है
 
कनखी-कनखी हमें देख
वह हँसी अचानक
हमने भी ढाई आखर का
बुना कथानक
 
सबसे मीठी
वही रूपसी हँसी हुई है
 
उसी बरस सारी ऋतुएँ
त्योहार हुईं थीं
घर-बाहर सारी घटनाएँ
नेह-छुईं थीं
 
वही अनूठी छवि
अब भीतर फँसी हुई है