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छाँव की नदी / राजा अवस्थी

छाँव की नदी
आग लिये बैठी है,
छाँव की नदी।

नरभक्षी सिंह हुये
सिंहासन के सारे;
किससे फरियाद करें
राजा जी के मारे;
धर्मराज चौसर का
शौक पुनः पाले हैं,
कण्ठ से प्रवाहमान
दाँव की नदी।

जंगल सब खत्म
राज में जंगल व्याप गया;
आतंकित ऋतुयें सब
मौसम तक काँप गया;
रेत बढ़ी, सूख गया
पानी संवेदन का,
बैठी है घाट तक
नाव की नदी।

पाँव की प्रबलतम गति
अवरोधों की मारी;
हाथ नहीं आया कुछ
बनिये से की यारी;
मोल हमारा
उसकी नजरों में ग्राहक भर
उमड़ाई बाढ़ भरी
 'साव' की नदी।

एक हुए जीने का
भ्रम पाले झुण्ड बना;
झण्डों के बीच स्वयं
एक अग्निकुण्ड बना;
आदिम ने आदिम को
लगातार होम किया,
सबकी उपलब्धि एक
घाव की नदी।