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छाँह न छोड़ी / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

छांह न छोड़ी,
तेरे पथ से उसने आस न तोड़ी।

शाख़-शाख़ पर सुमन खिले,
हवा-हवा से हिले मिले,
उर-उर फिर से भरे, छिले,
लेकिन उसने सुषमे, आंख न मोडी।

कहीं आव, कहीं है दुराव,
कहीं बढ़े चलने का चाव,
पाप-ताप लेने का दाव
कहीं बढ़े-बढ़े हाथ घात निगोड़ी।