उस ने वहाँ अपनी नाक गड़ाते हुए
हुमक कर कहा
और दुहराता रहा-
(दुलार पढ़ा हुआ नहीं भी था-पर क्या बात भी पढ़ी हुई नहीं थी?)-
‘हाँ, यहाँ, तुम्हारी छातियों के बीच
मेरा घर है! यहाँ! यहाँ!’
और चेहरे से उन्हें धीरे-धीरे सहलाता रहा।
और उस ने कहा, ‘हाँ, हाँ,
ऐसे ही फिर; हाँ, फिर कहो!
हाँ, आओ, मैं यहाँ तुम्हें छिपा लूँगी-
तुम सदा यों ही रहो!’
छातियाँ तब नहीं जानती थीं-
जो कि नाक भी तब नहीं मानती थी-
कि तभी से वह वहाँ घर बनाने लगी
जिस में फिर वह बन्दी हो कर छटपटाने लगा।
छातियों के बीच और कुछ नहीं, इस रहस्य का घर है।
माथा क्यों वहाँ टिका है?
क्यों कि नहीं तो नाक जाने का डर है।
बर्कले (कैलिफ़ोर्निया), 1 फरवरी, 1969