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छिटक-छिटक पहुँची बूँदें / प्रमोद कुमार

वर्षा हुई
धुल गया आसमान,
दिखने लगा दूर-दूर तक,
बहुत आसान-से लग रहे रास्ते
कीचड़ से सने हैं, कहीं-कहीं तो दलदल,

जिन्हें हम मरता समझने लगे थे
उन ज़मीनी बिरवों ने
हमें अनदिखती
लम्बी लड़ाई लड़ी
सब हरे हो गए
उनकी जड़ों की गहराई तक हमारी आँखें पहुँचीं,
नई-नई उनकी फुनगियाँ बहुत सटीक हैं
ऊसर होती
आदमी की आँखों को तर करने में,

बंजर कह-कह
उपेक्षित की गई मिट्टी
उगा रही पसीनेदार आदमी
वर्षा ने बचा ली एक ईमानदार नस्ल़
बचा रहेगा आदमी,

वर्षा में
आगे बहुत कुछ दिखेगा
छिटक-छिटक आप तक पहुँचीं ये कुछ बूँदें
न्यौता हैं
इसमें शामिल हो
दूर-दूर तक देखने का ।