एक गुदड़ी
फटी-सी काली
ओढ़कर बैठा हुआ आकाश
देखता है —
ले उड़े हैं अन्न सारा गिद्ध,
धरा की छूँछी पड़ी थाली !
झोंपड़ी में सदा को ही
बस गया है अन्धकार,
क्लान्त है आषाढ़ मास ! —
कृषक ने बाती नहीं बाली !
एक गुदड़ी
फटी-सी काली
ओढ़कर बैठा हुआ आकाश
देखता है —
ले उड़े हैं अन्न सारा गिद्ध,
धरा की छूँछी पड़ी थाली !
झोंपड़ी में सदा को ही
बस गया है अन्धकार,
क्लान्त है आषाढ़ मास ! —
कृषक ने बाती नहीं बाली !