आलस्य और ऊब भरे ये दिन
कहीं नहीं पहुँचते
सिवाय एक उदास शाम
और अंधेरी रात के।
दिनों की उबासी
और रात की उदासी का रिश्ता
मजबूत ना सही
पर पुराना जरूर है।
रात और दिन को
साथ-साथ चलते
बीती हैं सदियाँ
और सदियों का हिसाब
बाकी है अब भी।
इन दिनों बन्द हैं
वे सारे दरवाजे
जिनसे झाँकते उजाले
आ बैठते थे भीतर।
और चलती थी बहस
अंधेरों से आगे
उजले शहरों के
लम्बे रास्तों की।
सफर की मुश्किलों के अफसाने
चाव से सुनाए जाते थे।
उन दरवाजों पर
अब भी नहीं हैं ताले
पर
उन्हें खुलता देखने की
एक आदत थी
जो छूट चुकी है।