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छू दिया / यतींद्रनाथ राही

छू दिया
भोर की
कुनकुनी धूप ने
तार झंकृत हुए
बज उठी रागिनी।

खो गये हम
किसी स्वप्न के लोक में
खिल रहे थे सुमन
गन्ध के नव वलय
रंग भरने लगे
शब्द सूरजमुखी
हो गया प्राण में
रूप का लय-विलय
हम धरा से गगन
जोड़ने में रहे
खिलखिलाती रही
ज्योति की मानिनी।
कौन
किसके लिए
कब तरसता नहीं?
भटकनों से भरी
ज़िन्दगी की डगर
प्यास धरती की हो
या घुटन मेघ की
सिर पटक रेत पर
लिख रही है लहर
है निमन्त्रण मिला
सिन्धु का ज्वार से
गा रही है नदी
क्षिप्र गति-गामिनी

मौन साधे
न बैठे रहें इस तरह
हैं सृजन के प्रहर
दीप्त विश्वास है
तोड़कर
वर्तुलाकार ये दायरे
उड़ चलें
सामने मुक्त आकाश है
रूप है प्यार है
सत्य सौन्दर्य है
हैं समर्पण-शिखर
दृप्त मन्दाकिनी।
27.12.17