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छू सकती केश-कलाप नहीं कर सकती नव जूड़ा-बन्धन / प्रेम नारायण 'पंकिल'


छू सकती केश-कलाप नहीं कर सकती नव जूड़ा-बन्धन।
कर कसती सरि-मज्जन न नवल आभूषण नवल-वसन-धारण।
प्राणेश-केलि-सुख-निधि विलीन हो जाय न हूँ इस हेतु-सभय।
तज दूँगी प्रातःकाल-कलेवा दिवस-असन रजनी का पय।
इन अधर दलों पर अंगराग का ग्रथन करूँगी प्राण! नहीं।
हॅं सभय, श्वाँस-माधुर्य तुम्हारा लुप्त न हो प्राणेश! कहीं।
दधि-मटकी लिये खड़ी विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥141॥