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छैनी / अनिल गंगल

छैनी की ठक-ठक के साथ
जीवन की रेत में गूँज रही है एक जल-तरंग

नटी की रस्सी की तरह
तनी हुई हैं देह की सारी इन्द्रियाँ
आँखें अर्जुन की आँख की तरह
मछली की आँख पर केन्द्रित
कर रहे कन्धे और कलाइयाँ
एक दूसरे के साथ संगत
पत्थर पर फिसलती छैनी करती है रक्स
अविस्मरणीय देह-राग के बीच

छैनी
छीलती नहीं सिर्फ़ पत्थर की सतह
अन्तरतम को तराशती हुई
पत्थर की आत्मा को ख़ूबसूरती में बदलती है
कमतर नहीं कारीगर के हाथ किसी काल्पनिक ब्रह्मा के हाथों से
जो छैनी की मदद से बदल रहे अनगढ़ पत्थर को
किसी जीवंत देवी-देवता में

जब टटोल रहे होते हैं हम गहन धुंध के बीच रास्ता
तब यही छैनी अँधेरे को तराश कर
एक नए सूर्योदय के सामने हमें ला खड़ा करती है।