एक छोटी एशियाई झील
पसरीं जिसमें अभावों की घनी जलकुम्भियाँ
मल्लाहों के झुण्ड
निरन्तर कर्मशील,
दो वक़्त की रोटी फिर भी कई मील !
यह छोटी-सी झील
समन्दर है ख़तरों का
तैरते मासूम पक्षियों के लिए
बतखों के लिए,
अनजान मछलियों के लिए ।
और मल्लाहों के लिए तो
‘किल मी क्विक’* का देशी रूपान्तर है !
क्योंकि अब बनेगा झील की जगह
एक सुन्दर सॉफ़्टवेयर पार्क;
कुन्द कर डालेंगी घरघराती मशीनें
श्रवण शक्ति की कोमलता को ।
आज जिस मौन को
सुनता-समझता है, झील-तन्त्र यह
कल उस मौन को नहीं सुन पाएगा ।
समझ नहीं पाएगा ।
मौन की लकीरें ही ध्वनियों का वजूद हैं
पर अफ़सोस
कि चोट खाती ऐसी तमाम छोटी झीलें
भारत समेत पूरी दुनियाँ में मौजूद हैं ।
(* ’किल मी क्विक’ गरीबों की मुसीबतों का चित्रण करने वाले प्रसिद्ध कीनियाई लेखक मेजा मवांगी का एक जाना-माना उपन्यास है।)