छोटे मोहम्मद....!
पक गए दिखते हैं
देवकी के बगीचे के आम
चलो चुपके से
सुग्गों से पहले वहाँ पहुँच जाएँ
दो-चार आम चुरा ले आएँ
अपने एकान्त में
उनकी मिठास का
जी भर आन्द उठाएँ
इस जेठ की दुपहरी में
सोए हुए हैं घर वाले
हवा बेठी है गुमसुम
भीगी बिल्ली-सी
नदी भी होगी अकेली
चलो ! नदी तक हो आएँ
अपनी शरारतों में
उसे भी शामिल करें
संग उसके
खूब धमा-चौकड़ी मचाएँ
और नदी को बताए बिना
उसके तलछट से
मोतियों और सीप जैसे
कुछ सुन्दर पत्थर समेटे लाएँ
छोटे मुहम्मद !
खेतों में भुट्टे
कातने लगे हैं सूत
पहरेदारी में खड़े हो गए हैं बिजूके
लगता है भर गया है दानों में रस ।
चलो ! रस भरे भुट्टों को
चोरी से तोड़ें
खडड् के किनारे भूनें
और मजे से खाएँ
पर मुँह और हाथ से उठती
भुट्टों की भीनी गन्ध से
माँ के हाथों पकड़े जाएँ
छोटे मोहम्मद
अब नहीं रहा
वैसी शरारतों का मौसम
न रहे वो रस भरे आम के पेड़
न नदी ही रही उतनी चंचल
भुट्टों के खेतों में
बिजूके की जगह
खड़े हैं लठैत ।
और झुलसे हुए हैं रिश्तों के भी चेहरे
किसकी लगाई आग है यह
जो दिखती नहीं
फिर भी झुलसा रही है
हमारे तन और मन को
छोटे मुहम्मद !
आओ सोचें कुछ
बीता जा रहा है मौसम
बच्चे हो रहे हैं बड़े
कहीं वे भी न झुलसे
हमारी तुम्हारी तरह
इस नफ़रत की भयावह आग में ।