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जँगलराज / सुभाष राय

जँगल चुपचाप आ गया है शहर तक
रास्ते नहीं सूझते बस्तियों में
सँकरी होती पगडण्डियाँ खो जाती हैं दीवारों में
कँक्रीट में जमे पुतले नज़र आते हैं
इधर-उधर दौड़ते, भागते, हाँफते हुए

सबकी पीठ पर उग आई है पूँछ
लाख जतन करने पर भी छिपती नहीं
जब भी ज़रूरी होता है हिलती है
और जब हिलती है जाँघिए से बाहर आ जाती है

सुग्गे, तोते, गौरैयाँ न जाने कहाँ खो गए हैं
शेरों की खालें ओढ़े गीदड़ मस्त हैं यहाँ
अपने नाख़ून और बढ़ा लिए हैं, दाँत तेज़ कर लिए हैं
गुर्राते नहीं, चुपचाप धावा बोलते हैं
और चीथड़े कर देते हैं अकेले पड़ गए लोगों के

जँगल पसर रहा है आदमी की शिराओं में, धमनियों में
बहरे नहीं हो गए हो तो सुनो ख़ामोश आहट
लूले-लँगड़े गणतन्त्र को चीरकर उगते जँगलराज की