लड़खड़ा रहे तमाम जंगबाज़,
टूटकर बिखर गया
कुचाल-साज़ !
जागरूक विश्व ने दिया रहस्य खोल,
असलियत बता रहा मनुष्य
पीट ढोल !
चोर और मुफ़्तख़ोर बौखला रहे,
सत्य और नेकनीयती बता रहे —
कि ख़ून हम बहा रहे
किसी न स्वार्थ-सिद्धि के लिए,
वरन्
स्वतंत्राता, विकास, लोकतंत्रा के लिए !
पर, प्रकट हुए वहीं
अभाव रोग कोढ़
मौत-ग्रस्त भुखमरी,
अनेक आफ़तें बुरी-बुरी
सदैव ही रही घिरीं !
समझ गया हरेक व्यक्ति आज
ये तभी
तमाम लड़खड़ा रहे हैं जंगबाज़ !