बेटा रोज़-रोज़
माँ से जंगल की प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनता रहा
एक दिन मुझसे बोला-
”मुझे जंगल देखना है पिताजी“
मैं मुस्कराया और बोला-
”देख लेना बेटे जब बड़ा होना“
मैं उससे कैसे कहता कि
जंगल तो अब
आसपास की तमाम आँखों में उग आये हैं
लेकिन उनमें न फूलों की हँसी है, न पेड़-पौधों की तरंगित हरीतिमा
न पंछियों की चहचहाहट है, न मासूम पशुओं की क्रीड़ा
न नदियों के जल का उल्लास है
न सरोवरों का मौन संगीत
उनमें तो बस हिंस्र पशुओं की
भयानक दृष्टि चमकती रहती है
बच्चे लापता हो रहे हैं
स्त्रियों का स्त्रीत्व रौंदा जा रहा है
बूढ़े हों या जवान दिवस-यात्रा में डरे हुए कामना करते रहते हैं
कि सुरक्षित घर पहुँच जायें
पर, अब घर भी कहाँ सुरक्षित हैं
जंगल तो उनके भीतर भी पैठने लगे हैं
और तहस-नहस कर रहे हैं उनकी गृहता को
लहूलुहान हो रहे हैं उनके सपने और पावन रिश्ते
इन जंगलों को न क़ानून का डर है
न इनके भीतर से कोई कोमल आवाज़ उठती है
एक जंगल क़ानून की गिरफ़्त में आता है
तो दूसरे कई जंगल उग आते हैं
राजनीति और धर्मवाद अदृश्य रूप से सींच रहे हैं इनकी जड़ें
अकेला एक कवि कलम लिये खड़ा है
जंगल के विरोध में...।
-10.9.2014