सड़कों पर लेटे सायों को
कर्फ़्यू रहा कुचल
सन्नाटा नुक्कड़ पर बैठा
अपना सिर धुनता
बस्ती मे घुसते जंगल की
गुर्राहट सुनता
गूंगी दीवारों के पीछे
बन्दी चहल-पहल
जिसे ढके है दोपहरी की
मटमैली चादर
उसका तो कल क़त्ल हुआ था
सोया कहाँ शहर
राजपथों के चौराहों पर
दहशत रही टहल
शंकित हिरनी-सी मौसम की
आँखें तब होतीं
जब हिंसक संगीनें
अपने घर मेँ डर बोतीं
बारूदी हलचल
रिश्तों के पुल भी उठे दहल