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जंगल सुलगाए हैं / हरीश भादानी

आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज़ कहाए हैं

हद तोड़ अंधेरे जब
आंखों तक धंस आए
जीने के इरादों ने जंगल सुलगाए हैं

जिनकों दी अगुआई
चढ़ गए कलेजे पर
लोगों ने ग़रेवां से वे लोग उठाए हैं

बंदूक ने बंद किया
जब-जब भी जुबानों को
जज्वात ने हरफ़ों के सरबाज उठाए हैं

गुम्बद की खिड़की से
आदमी नहीं दिखता
पाताल उलीचे हैं ये शहर बनाए हैं

जब राज चला केवल
कुछ खास घरानों का
कागज के इशारे से दरबार ढहाए हैं

मेहनत खा सपने खा
चिमनियां धुआं थूकें
तन पर बीमारी के पैबंद लगाए हैं

दानिशमंदो बोलो
ये दौर अभी कितना
अपने ही धीरज से हर सांस अघाए हैं

न हरीश करे लेकिन
अब ये तो करेंगे ही
झुलसे हुए लोगों ने अंदाज दिखाए हैं

आए जब चौराहे आग़ाज कहाए हैं
लम्हात चले जितने परवाज़ कहलाए हैं