अर्ध्द निशा में जगते तारे !
जब सो जाते दुनिया वासी; जन-जन, तरु, पशु, पंछी
सारे !
ये प्रहरी बन जगते रहते,
आपस में मौन कथा कहते,
ना पल भर भी अलसाए रे, चमके बनकर तीव्र सितारे !
झींगुर के झन-झन के स्वर भी,
दुखिया के क्रन्दन के स्वर भी,
लय हो जाते मुक्त-पवन में चंचल तारों के आ द्वारे !
निद्रा लेकर अपनी सेना,
कहती, 'प्रियवर झपकी लेना'
हर लूँ फिर मैं वैभव, पर, ये कब शब्द-प्रलोभन से हारे !
जलते निशि भर बिन मंद हुए,
कब नेत्र-पटल भी बंद हुए,
जीवन के सपनों से वंचित ये सुख-दुख से पृथक बिचारे !