अमृतस्वरूपा, प्रणवरूपिणी, तुम अयोनिजा, नित्या,
रमरारमा लीलाविलासिनी, प्रभारूपणी, दिव्या।
कालरात्रि लंकाविनाशिनी, परम क्षमासम्पन्ना,
त्रिगुणातीता, परात्परा, जगदम्बा, रामाभिन्ना।
परम अर्थ की तुम प्रकाशिका, मूल प्रकृति महिमान्वित,
तुम चेतना पुरुष की, ऊष्मा वैश्वानर की ज्योतित।
रवि की ज्योति, कौमुदी शशि की, शक्ति पवन की अतुलित,
कालभेद से कला, याम, घटिका, निमेष में कीर्तित।
दिव्य तुम्हारी लीलाओं का गायन मंगलदायक,
महाकाव्य के मानदण्ड का होता आदिविधायक।
भगवत्ता के चिन्मय ऊर्ध्वशिखर जिसमें परिलक्षित,
चिन्त्यमान बहुधा युग की शब्दावलियों में चित्रित।
प्रणवातीत तुम्हारी सत्ता का ऐश्वर्य अलक्षित,
त्रिभुवन में अनन्त महिमा का उदधि अपार तरंगित।
ज्ञानशक्ति को आलिंगन में बाँध ज्योति से प्रहसित,
प्राण सृजन की लीला कर तुम निखिल ऊर्ध्व में शोभित।
होती तुम अभिषिक्त अमृत से, देवों से अभिनन्दित,
चन्द्ररूप में औषधियों के अन्तर में उत्कीर्णित।
करते रश्मि विकीर्ण तुम्हारे निकट दीप बन कर दिनकर,
पंखे झलती रहतीं तुम पर स्वाहा-स्वधा निरन्तर।
जननि, तुम्हारे अंशमात्र मंे कोटि लोक-लोकान्तर-
विद्यमान; तुम पर निर्भर मन्वन्तर, शत संवत्सर।
लखकर अन्तःकरण तुम्हारा परदुखद्रवित दयामय,
शीतल होना पड़ा प्रदीप्त अनल को भी ज्वालामय।
भुवनों की कल्याणकारिणी शक्तिरूप में वर्णित,
अमर तुम्हारी कथा काल के भालपटल पर अंकित।
कौन तुम्हारे व्यक्तिचरित की छवि करने में व्य´्जित,
सफल हो सका किसी देश में, किसी काल में निश्चित।