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जगी प्रतीक्षा / गुलाब सिंह

आँखों आँखों जगी प्रतीक्षा
आधे बन्द किवाड़ों पर
दिन खाई में धँसा-धँसा
दिनमान चमकता ताड़ों पर।

सूरत, तपे हुए सोने-सी
बातें, फूलों के सौरभ में
पलक बन्द कर
मुँह धोने की,

उठी हथेली हरी
हिल रही
सूखे हुए उजाड़ों पर।

मन, सपनों के राजमहल-सा
भीतर-बाहर सम्मोहन का,
जादू चलता
हल्का-हल्का,

भौंहे तनी
कमान-तीर-सी
रंक और रजवाड़ों पर।

प्यार कि जैसे धूप शरद की
निकली, खिली, हो गई ओझल
अधर-अधर पर
अँगुली रख दी,

अंधकार का
वही धुंधलका
फैला नदी-कछारों पर।