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जटिल है संसार / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

जटिल है संसार,
गाँठ सुलझाने उलझ जाता हूं बार-बार।
साीधा नहीं गम्य स्थान,
दुर्गम पथ की यात्रा है, कंधे पर बोझ है दुश्चिन्ता का।
प्रति पद में प्रति पथ में
सहस्रों हैं कृत्रिम वक्रता।
क्षण-क्षण में
हताश्वास होकर शेष में हार मान लेता मन।
जीवन के टूटे छन्द में भ्रष्ट होता मेल है,
जीने का उत्साह धूल में मिल, हो जाता शिथिल हैं।

जो आशाहीन,
शुष्कता पर उतार लाओ निखिल की वर्षा रस धारा।
विशाल आकाश में,
वन-वन में, धरणी की घास में,
सुगभीर अवकाश से पूर्ण हो उठा है आज
निखिल विश्व
अन्तहीन शान्ति उत्सव के स्रोत में।
अन्तःशील जो रहस्य है प्रकाश अन्धकार में
उसका सद्य करे आह्वान
आदिम प्राण के यज्ञ में मर्म का सहज साम गान।
आत्मा की महिमा, जिसे तुच्छता ने कर दी है जर्जर
म्लान अवसाद से, उसे दूर कर दूं,
लुप्त हो जाय वह शून्य में,
द्युलोक और भूलोग के सम्मिलित मन्त्रणा के बल से।