फिर किया तिमिर की छाती पर आलोक पुंज ने पद-प्रहार।
फिर हुआ सत्य विजयी, असत्य ने मानी अपनी प्रबल हार॥
फिर लोक-शक्ति ने कर डाला, तानाशाही का दर्प चूर।
उन्मुक्त वायु में नाच उठा फिर खोल पंख मन का मयूर॥
भय की कारा से मुक्त पुनः मानव सुख की ले सका साँस।
प्रतिबन्धित पीड़ित अधरों को फिर मिला मनोरम सुखद हास॥
ढह गया दुर्ग पदलिप्सा का, जन-सागर में बह उठा ज्वार।
आदर्श त्याग ने किया स्वार्थ का दामन पल में तार-तार॥
फिर लोकतंत्र के मस्तक पर जन-जन ने लगा दिया टीका।
गूंजा अवनी से अम्बर तक स्वर मधुर प्यार की मुरली का॥
वह राष्ट्र हमारा बढ़े प्रगति के पथ पर नित होकर निर्भय।
ध्वनि दिग्दिगन्त में रहे गूंजती एक यही-‘जनता की जय’॥