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जनता के कवि / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

जात धरम आग हो,
बल से बुझावै ले पड़तो
दुस्मन के
मैदान में सुताबै लै पड़तो
लड़ला हे सब दिन तों
अभी लड़ै ले पड़तो
झंडा फेर
आजादी के गड़ै ले पड़तो
कोय चीज
अंत होबै के पहिले टभकऽ हे,
जइसे
दीये बुते के पहिले भभक हे
ई ले हमरो
कविता के धार बुलंद हो
ऊ कवि
कलाकार के लानत हे,
जे अप्पन
भेस बना रहले हे,
जबकि
देस के एतना छियानत हे।
बेसरमी के बाजार,
ओकर रॉयलिटी
हजारो के हजार।
ओकरे चमक रहले हे छबी।
जे भुक्कखल
जनता के बात कर रहने हे
ऊ भिखमंगा,
जे राजा के
बात कर रहलें हे।
ऊ महा कवि।
के सुनऽ हे
हमर कविता के भासन
ओकरे पैसा हे अउ प्रकाशन
हम तो घर के झाडू ही
गंदगी झारै के
हमर काम हे
घर-घर के
गंदगी जब दूर हो जैते
तब जुल्मी
अपनै मजबूर हो जैतै