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जनम की साँझ / मोहन अम्बर

आज मैं लिक्खूँगा कुछ बात, बात लिखने का दिन है आज,
लग रही संध्या ऐसी भली।
मनाने को ज्यों रूठे पिया।
रूठने का हो प्रिय का ढोंग।
सितारा ऊग आया इस तरह।
रूप ज्यों दे चितवन को कोण।
नासिका का दिख जाये लोंग।
रात-दिन का यह नेहिल द्वंद हजारों मन प्राणों का राज,
गीत तू खिलने दे यह राज, राज खुलने का दिन है आज,
आज मैं लिक्खूँगा कुछ बात, बात लिखने का दिन है आज।
प्रिया! आ देख बताऊँ तुझे
ठीक अधजमे दही-से मेघ।
पास में ऊगा चौथ का चाँद।
अमावस गये चार दिन बाद।
अभी तू जिसे छीलकर उठी।
उसी लहसुनी कली-सा चाँद।
और अब जाकर दर्पण देख अधर तेरे भी ऐसे नहीं,
साँझ के राते-पन से लाज, लाज लगने का दिन है आज,
आज मैं लिक्खूँगा कुछ बात, बात लिखने का दिन है आज।
दिवस भर के श्रम के पश्चात्।
थके श्रमिकों की तरह उदास।
नीम पर बगुले बैठे मौन।
और इस दुनिया का व्यवहार।
प्यार को कर बैठा है कत्ल।
किसी का दुखड़ा पूछे कौन।
कोठियाँ वैश्याओं-सी सजी बस्तियाँ मरघट-सी सुनसान,
आज तू दुखजा मेरे प्राण, प्राण दुखने का दिन है आज,
आज मैं लिक्खूँगा कुछ बात, बात लिखने का दिन है आज।