इस तरह गुस्से से क्यों भरे हैं जनाब ?
इस तरह क्यों गलिया रहे हैं ?
क्यों बार-बार थूक रहे हैं ?
देखिए
आपकी पीक से
ज़मीन किस तरह रंग गई है ?
आपकी गालियों से
गंधा गई है हवा
अपने ही गुस्से से
टूट रहे हैं आप
अपने ही धरातल से
छूट रहे हैं आप
फिर इतने गुस्से से
क्यों भरे हैं जनाब ?
क्यों जला रहे हैं लहू
अपना ही आप ?
जनाब आप मुस्कराइये !
और मुस्कराइये ! फिर मुस्करा कर ही
अपनी कविता में टाँक लीजिए :
--यह दिल्ली है दिल्ली
भारत का दिल
मगर चूहों का बिल
भाई मेरे
मुझे तो दिल्ली
अच्छी लगती है
इसीलिए मेरे भेजे में
कोई ग़ाली नहीं पलती है
इसका मतलब यह नहीं जनाब
कि मैं किसी
कुत्ते की दुम हूँ
जो हूँ
जहाँ हूँ
अपनी ही राहों का राही हूँ
इसीलिए बार-बार
लोगों से
जुड़ा-जुड़ा टूटा हूँ
बार-बार हारा हूँ
बार-बार चुका हूँ
इसका मतलब यह नहीं जनाब
कि बिल्कुल ही ठंडा हूँ
पर गुस्से से कोरा भी नहीं
गालियाँ गदहे भी नहीं
और आपका थूक
किसी का क्या बिगाड़ लेते हैं जनाब ?
लड़ाई की सही धार
कहाँ है जनाब
इसे जानिए
और
कबीर के पीछे
मेरे साथ हो जाइये ?