बाँस का जंगल जला,
फिर बाँसुरी ने
गीत गाए ।
तुम कहाँ हो
गीत की यह जन्मगाथा
मन सुनाए ।
तीर्थ से लौटी नहीं है
श्वास पश्चाताप की,
दूर तक फैली हुई
पगडंडियां है पाप की,
पोर गिन-गिन
उँगलियाँ
डाकिन चबाए ।
अस्थियाँ इतिहास की
कलश देहरी पर धरा है ।
और आँगन में अधूरे
क़त्ल का शोणित भरा है ।
कौन आँखों के दिए में
आग भर के
प्रेत को फिर से जगाए ।