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जन्मदिन / महावीर सरवर

बहुत नाराज है वह मुझसे।

न जाने कहां-कहां होकर आता है वह
उसके दिप-दिप चेहरे में झिलमिलाते हैं
रंगीन शामियाने
सजे-धजे कमरों की जगमगाहटें
मोहक बंदनवार और अल्पनाएं।

बहुत बिजी शड्यूल रहा है उसका
एक अलमस्त विश्रान्ति में अलसाता हुआ
वह मेरे पास आता है
और जब भी आता है एक बेनूरी से
घिर आता है।

कहीं बरसों का सिलसिला है यह।
आते ही/उनींदता हुआ वह शिकायत
करता है/बहुत बोर आदमी हो तुम/
कितनी जर्द और बेतुकी मुलाकातें रही हैं
मेरी तुम्हारी/
बढ़ती जा रही है। तुम्हारे फटे हुए जूते की
तरह तुम्हारी गुस्ताखी!

वह नहीं समझता,
बरसों से अकुला रहा हूं मैं
अपने भीतर हमेशा एक परचम उठाए
छटपटाता और कराहता हुआ
‘सब खुशी हों/सब सुखी हों!’

न जाने कितनी कामनाएं
और आशावान दिन और रातें
बेतुके केसों की तरह
दाखिल दफतर हो जाते हैं।
जिंदगी का हर दिन। किसी भुरभुरी
फाइल के कागज की तरह पलट देता हूं।
हर वक्त हाथों के आस-पास
कुछ ललचाता सा मंडराता रहता है
उंगलियों के बीच से वह कुछ सरक जाता है
एक नामालूम हवा की लहर की तरह।
हर रोज मेरे जेहन में अनजाने सवाल टंग जाते हैं
साल-दर-साल हमारी निरर्थक भेंटों के बीच
बस यही कुछ रह जाता है एक परित्यक्त से रास्ते पर
हर साल जिंदगी और बदरंग छोड़ आया हूं
वहां बस निष्फल प्रयासों की छायाएं हैं
या थूकी हुई तिलमिलाहटों के धब्बे
जिनके लिए खपता रहा। वही मुस्कानें चिपकाए
निजता के वृत्त के भीतर की, धूर्तहोते गए।
बताओ तुम्हीं किन को शामिल करूं
तुम्हारे साथ इस भेंट के समारोह में
इनके भीतर कोई परचम नहीं। बड़े संतुष्ट और
आश्वस्त हैं वे लोग। इनके हाथों के आस-पास
कुछ नहीं मडराता, कचोटता।

(उफ! इनके लिए ऐसे सुखों की कामना तो नहीं की थी मैंने)
बस मेरी और तुम्हारी मुलाकात निरी वीरान ही रहेगी
न जाने कब तक।
न जाने किस आदिम भावुकता से अभिभूत
हर बार तुमसे मिलकर एक सिगरेट जरूर सुलगाता हूं।
और धुएं के बीच कुछ स्वर्णिम-सा कंपकंपाता है
मेरे आस-पास कुछ स्निग्ध सा मचलता है, मंडराता है।

मैं मन ही मन कामना करता हूं
‘सब सुखी हों’
मैं चाहता हूं कोई कहे-‘आमीन’
कितनी बार दोहरा चुका हूं-‘सब सुखी हों’
न जाने कब कोई कहेगा
‘आमीन।’