जब आत्मा मर गई हो
और तुम फिर भी साँस ले रहे हों
लेकिन तुम्हारी ज़िन्दगी रसातल में
मदहोश लटक चुकी हो
फिर तुम्हें यह जानने की क्या ज़रूरत है
कि शहद कितना कड़वा है
और आँसू
कितने मीठे हैं ?
बेमतलब है सब ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
’दिनमान’ के 19 अगस्त 1973 के अंक में प्रकाशित