Last modified on 26 फ़रवरी 2013, at 14:02

जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा / ज़फ़र गोरखपुरी

जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
तो क्यूँ करीब-ए-हवा शम्मा ला के रक्खी थी

फ़लक ने भी न ठिकाना कहीं दिया हम को
मकाँ की नीव ज़मीं से हटा के रक्खी थी

ज़रा फुवार पड़ी और आबले उग आए
अजीब प्यास बदन में दबा के रक्खी थी

अगरचे ख़ेमा-ए-शब कल भी था उदास बहुत
कम-अज़-कम आग तो हम ने जला के रक्खी थी

वो ऐसा क्या था के ना-मुतमइन भी थे उस से
उसी से आस भी हम ने लगा के रक्खी थी

ये आसमान ‘ज़फ़र’ हम पे बे-सबब टूटा
उड़ान कौन सी हम ने बचा के रक्खी थी