Last modified on 20 मार्च 2010, at 15:13

जब उसे छुआ / अशोक वाजपेयी

जब उसे छुआ
मैंने धरती को छुआ
उसकी अँधेरी जड़ों में
हरे के लिए विकल।
मैंने सारे वृक्षों की हरीतिमा को छुआ
छुआ पानी के सपनों को
नदियों और झरनों में बहते हुए।
मैंने छुआ हर उस कली को
जो अधीर थी खिलने और मुरझाने को।
मैंने अनन्त के पंख छुए
समय के कुछ फूल
नामहीनता की परछाइयाँ।
जब उसे छुआ
मैंने नामहीनों को नाम दिए,
प्रेम को घर,
और कामना को फूल।
मैंने उसे छुआ
और धरती का फिर से जन्म हुआ :
वर्षा से भीगी,
फूलों से सघन,
धूप में प्रफुल्ल।