जब तक बारिश में भीगती हो
पंछियों की देह
जाते नहीं उड़कर किसी दूसरी शाख पर
तट तोड़कर आई नदी
नहीं सिमटती सहज अपनी सीमाओं में
सिर्फ़ ज्वार के दिनों ही
आतुर-अकुलाया समन्दर
उठता तोड़ अपनी देह की समूची बाधाएँ
जब तक न हो किसी का ऐसा आना
बदलेगी धूप हर क्षण अपना ठिकाना।