Last modified on 19 नवम्बर 2009, at 03:06

जब तक / जया जादवानी

जब तक बारिश में भीगती हो
पंछियों की देह
जाते नहीं उड़कर किसी दूसरी शाख पर
तट तोड़कर आई नदी
नहीं सिमटती सहज अपनी सीमाओं में
सिर्फ़ ज्वार के दिनों ही
आतुर-अकुलाया समन्दर
उठता तोड़ अपनी देह की समूची बाधाएँ
जब तक न हो किसी का ऐसा आना
बदलेगी धूप हर क्षण अपना ठिकाना।