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जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री / सूरदास

जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री ।
तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसैं काँचौं सूत री ॥
अति बिसाल बारिज-दल-लोचन, राजति काजर-रेख री ।
इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री ॥
स्रवन सुनत उतकंठ रहत हैं, जब बोलत तुतरात री ।
उमँगै प्रेम नैन-मग ह्वै कै, कापै रोक्यौ जात री ॥
दमकति दोउ दूधकी दँतियाँ,जगमग जगमग होति री ।
मानौ सुंदरता-मंदिर मैं रूप रतन की ज्योति री ॥
सूरदास देखैं सुंदर मुख, आनँद उर न समाइ री ।
मानौ कुमद कामना-पूरन, पूरन इंदुहिं पाइ री ॥


भावार्थ :-- (दूसरी गोपिका कहती है-) `सखी ! जबसे मैंने श्रीयशोदानन्दन को आँगन में खेलते देखा, तब से घर का सम्बन्ध तो ऐसे टूट गया जैसे कच्चा सूत टूट जाय । उनके अत्यन्त बड़े बड़े कमलदल के समान लोचनों में काजल की रेखा इस प्रकार शोभित थी मानो नेत्र-गोलक का वेष बनाकर भ्रमर बड़ी चाह से मकरन्द ले रहे हों । जब वे तुतलाते हुए बोलते हैं, तब उस वाणी को सुनने के लिये कान उत्कण्ठित हो रहते हैं और नेत्रों के मार्ग से प्रेम उमड़ पड़ता है( प्रेमाश्रु बहने लगते हैं)। भला किससे वे अश्रु रोके जा सकते हैं । दूध की दोनों दँतुलियाँ (छोटे दाँत) प्रकाशित होते (चमकते)हैं, उनकी ज्योति इस प्रकार जगमग-जगमग करती हैं मानो सौन्दर्य के मन्दिर में रूप के रत्न की ज्योति हों । सूरदास जी कहते हैं कि उस सुन्दर मुख को देखकर हृदय में आनन्द समाता नहीं, मानो पूर्ण चन्द्रमा को पाकर कुमुदिनी की कामना पूर्ण हो गयी हो (वह पूर्ण हो उठी हो)।