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जब भी मिले / योगेंद्र कृष्णा

सूखे तटों को भी इंतज़ार था
लहरों का
उन्हीं से सार्थक था
उनका होना

तय नहीं था कभी
फिर भी उनका मिलना

लेकिन
जब भी मिले
थम गया अनर्गल शोर

बदल गया
पानी का रंग
और मिट्टी का गंध

तरल हो कर बहने लगी
बर्फ हो चुकी
आदिम इच्छाएं

और
संगीत की धुनों के साथ
आसमान तक उठने लगे
हवा से भी हल्के कदम...