देखना
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ
तब सभागृह में कोई न हो
जैसे भाषा या जीवन में
पढ़नेवाला
तो कत्तई नहीं
और सुननेवाला कल्पना तक से बाहर
और दर्शक भी
न रहे
आत्मा
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ
लिखता हुआ मिलूँ
देखना
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ
तब सभागृह में कोई न हो
जैसे भाषा या जीवन में
पढ़नेवाला
तो कत्तई नहीं
और सुननेवाला कल्पना तक से बाहर
और दर्शक भी
न रहे
आत्मा
जब मैं कविताएँ पढ़ूँ
लिखता हुआ मिलूँ