जब से होश संभाले हमने
घर में देखो घाटे के दिन,
आए नहीं कभी खुश होकर,
द्वारों सैर-सपाटे के दिन।
देह धरे के दंड भुगतते रहे, पढ़े- अनपढ़ों सरीखे,
हक़ पर डाके पड़े सरासर, मुँह पर बाँधे रहे मुसीके;
शाबाशी भी पीठ छोड़कर
मुँह पर मारे चाँटे बैरिन।
गत जन्मों के पुण्य, हमें जो मिली आज ये मानुस देही,
पिंड राम-से रहे भटकते, भटक रही आत्मा वैदेही।
कभी नमक हो गया खत्म तो-
कभी बिना ये आटे के दिन।
हम कतार में लगे रह गए, आते-आते अपना नम्बर,
धरती खिसक गई नीचे की, खत्म हो गई सभा, स्वयंवर।
ज़हर हो गई रात चाँदनी,
सभ्य साँप के काटे के दिन।
जब से होश संभाले हमने
घर में देखे घाटे के दिन।