जब हम नहीं होते
हर उस जगह पर
जहाँ हमारा होना
उस जगह के औचित्य को
सिद्ध कर देता था।
तब भी उस जगह के
सभी काम उसी तरह से हो जा हैं जैसे औचित्य सिद्धि की यात्रा में हुआ करते थे।
बस थोड़े हिचकोलों के साथ।
तब फिर
क्या फ़र्क़ पड़ता है ?
हमारी मौजूदगी का
कि हम रहें न रहें
ख़ाली जगह तो भर ही जाती है
किसी भी दूसरे नाम के साथ
और
एक नये नाम का जन्म
हमारे नाम को धीरे से हटाकर
हर उस जगह पर स्थापित जाता है जिस जगह पर हमारे नाम का कभी
परचम लहराता था।