लौट आए हैं जमुन-जल मेघ
सिन्धु की अंतर्कथा लेकर ।
यों फले हैं टूटकर जामुन
झुक गई आकाश की डाली
झाँकती हैं ओट से रह-रह
बिजलियाँ तिरछी नज़र वाली
ये उठे कंधे, झुके कुंतल
क्या करें काली घटा लेकर !
रतजगा लौटा कजरियों का
फिर बसी दुनिया मचानों की
चहचहाए हैं हरे पाखी
दीन आँखों में किसानों की
खंडहरों में यक्ष के साए
ढूंढ़ते किसको दिया लेकर ?
दूर तक फैली जुही की गंध
दिप उठी सतरंगिनी मन की
चंद भँवरे ही उदासे गीत
गा रहे झुलसे कमल-वन में
कौन आया द्वार तक मेरे
दर्भजल सींची ऋचा लेकर ?
दर्भजल=कुश से टपकता जल