जब तक जयमाल न पड़ती है
ग्रीवाएँ सुलज न झुकती हैं
आँचल भी पहरा देता है
कुछ भीतर-भीतर होता है
कौमार्य-मचलता रहता है
मन सौ-सौ झौंके सहता है
दोनों का हृदय धड़कता है
नयनों से प्यार उमड़ता है
पर जैसे ही ‘जयमाल’ हुई
लज्जा से कन्या छुई-मुई
पौरूष अँगड़ाई लेता है
लगता है- विश्व-विजेता है
जब सातों फेरे पड़ते हैं
पौरूष के झंडे गड़ते हैं
यह बात नहीं स्वाभाविक है
दाता बनता अभिभाविक है
‘कन्या का दान’ किया जाता
त्राता बन जाता है दाता
यह विडंबना तो भारी है
बिकती बजार में नारी है