शहर के घाट पर आकर लगी है एक नाव
मल्लाह की बिटिया आई है घूमने शहर
जी करता है जाकर खोलूँ
उसकी नाव का फाटक जो नहीं है
पृथ्वी के पूरे थल का द्वारपाल बनूँ
अदब से झुकूँ
गिरने-गिरने को हो आए
मेरे सिर की पगड़ी जो नहीं है
कहूँ,
पधारो, जलकुमारी !
अपने चेहरे पर नदी और मुहावरे के पानी के साथ।