Last modified on 10 नवम्बर 2020, at 23:18

जलती हुई दुपहरी / रामगोपाल 'रुद्र'

जलती हुई दुपहरी की रेती पर
एक बार तुम रोज़ छाँव बन छा जाओ!

फूल, तुम्हें पाकर जो खिल जाते हैं,
खिलने पर तुमको ही मिल जाते हैं!
खिलने के पहले तक ही पाना है;
खिलकर तो तुममें ही खो जाना है!
इसीलिए अनुनय कि रोज़ तुम आकर
एक बार पुलिनों के फूल खिला जाओ!

आओगे तो अपनी ही इच्छा से;
दीखेगा, तुम मिले मुझे भिक्षा से!
प्राण-पिपासा तर्पण बन जाएगी;
जीवन-लिप्सा अर्पण बन जाएगी;
यह पुकार मेरी ऊँची कहलाए
एक बार तुम रोज़ उतरकर आ जाओ!