गगन में उड़ने वाले सिन्धु तुम्हारा सादर अभिनन्दन,
पधारो राधा के घनश्याम, हरित अंचल के जीवन-धन।
पिकी की सुनो सुरीली तान, मयूरी का देखो नर्तन,
दूब को अंकुर देकर नये, भरो संयोगिन में पुलकन।
करारे कजरारे धर वेश, बनो कजली मलार के स्वर,
तुम्हें पहनायेंगे बक-बृन्द, श्वेत-मालायें उड़-उड़ कर।
जुही की गुही मँहकती माल, फुही का सिंचन पायेगी,
केतकी की पिछली पहचान, दुबारा चुम्बन पायेगी।
बनो तुम मंदक्रान्ता छन्द, यक्ष के विरहातुर स्वर में,
दूत बन ले जाओ संदेश, सुन्दरी के अन्त: पुर में।
बना करके नदिया को नदी, नदी को वर देकर नद का,
भले ही परिचय दो तुम हमें, जलद होकर अपने मद का।
किन्तु उनका भी रखना ध्यान, जो कि निर्जला उपासे हैं।
तुम्हारी एक बूँद के लिये, एक संवत् से प्यासे हैं॥