Last modified on 23 सितम्बर 2018, at 12:38

जलाए दीपक / बालस्वरूप राही

जीवन के हर अंधियारे पथ पर मैंने
जल जल का सारी रात, जलाये दीपक।

फिर कोई पग डगमग न कहीं हो जाये
फिर कोई राही पथ न कहीं खो निरखते
थक हार हृदय कोई न कहीं सो जाये।

सह सह कर अपनी खुली हुई छाती पर
तम के घातक आघात, जलाये दीपक।

मुरझाई कली कली मेरे आंगन की
सूनी है गली गली मेरे जीवन की
कर पाता पर समझौता नहीं तिमिर से
कुछ ऐसी आदत है मेरे कवि-मन की।

मैं नई उषा का गायक इसीलिए कर-
अनसुनी सपन की बात, जलाये दीपक।

जब अपना कोई पास नहीं रहता है
अंतर में मृदु उल्लास नहीं रहता है
ज़िन्दगी दर्द से हार नहीं सकती पर
मुझ से मेरा विश्वास यही कहता है।

जब तक निशीथ की छाती चीर न पाया
ज्योतिर्मय नूतन प्रात, जलाये दीपक।