धरती में गुँथे अपने रूपों को निहारता
पहचान में लहर-लहर होता
यह जल ही ज़लज़ले उठाता है देह में मन में
भावना के तूफानों
भवता और भाव के बियाबानों में
ज़रा भटक कर देखो
उतरो
अपने ही अचेतन तहखानों में
जहाँ तुम क़ैद हो
वहीं मुक्ति है !
धरा में
रेशा-रेशा समाए जल से जुड़कर
तुम्हारा रक्त उछालें खाता है
जितना जल है धरती में
उतना ही क्यों
तुम्हारी देह में समाता है?
इस फैली-खिली दुनिया से
बस
क़तरा भर का तुम्हारा नाता है !...