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जलेबियाँ / नज़ीर अकबराबादी

ऐ बी! मुकरती क्यों हो वह खंदी तो जीती है।
है जिसके हाथ हमने भिजाई जलेबियां॥
मैं दो बरस से भेजता रहता हूँ रात दिन।
तुमने अभी से मेरी भुलाई जलेबियां॥
यह बात सुनके हंस दी और यह कहा मियां।
ऐसी ही हमने कितनी उड़ाई जलेबियां॥
हलवाई तो बनाते हैं मैदे की ऐ ”नज़ीर“।
हमने यह एक सुखु़न की बनाई जलेबियां॥

शब्दार्थ
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